yoga

ध्यान

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पुराणे पुरुषं प्रोक्तं ब्रह्म प्रोक्तं युगादिषु क्षये संकर्षणं प्रोक्तं तमुपास्य उपास्महे।।

 

मैं ध्यान करती हूँ। मन से ध्यान करती हूँ। मन में ध्यान करती हूँ मन का ध्यान करती हूँ। इस मन के परिप्रेक्ष में आज ‘ध्यान’ शब्द का विश्लेषण करती हूँ।

ध्यान=धी + आन
= (ध्यै + क्विप्) + (अन्+ घञ्)
या
=(धा +ड + डी़प्) + (आ + अन् + क्विप्)

धी कहते हैं बुद्धि को। यह शब्द द्वियोनिज है।
पहली योनि है-ध्वादिगण परस्मैपदी ध्यै धातु ।
ध्यायति, कर्मवाच्ये ध्यायते, इच्छाकरणे दिध्यासति सोचना मनन करना विचार करना चिन्तन करना कल्पना करना स्मरण रखना इसके अर्थ हैं।

दूसरी योनि है-ह्रादिगण उभयपदी धा धातु ।
दधाति धते कर्मवाच्ये धीयते प्रेरणकरणे घाययति धित्सति धारण करना वहन करना पहनना हस्तगत करना मन और विचारों को लगाना जमाना बढ़ना रखना थामे रखना सहारा देना स्थापित करना सम्पन्न करना, प्रदान करना, देना, अर्पित करना उपकृत करना, पैदा करना रचना करना उत्पन्न करना बनाना अर्थ में इस का प्रयोग होता है।

ध्यै धातु में क्विप् प्रत्यय लगा कर ध्यै + क्विप्= धी शब्द बनता है।
धा धातु में ड प्रत्ययः लगाने से ध तथा इस में स्त्री प्रत्ययोपू लगाने से भी शब्द की उत्पत्ति होती है। घी का अर्थ है यज्ञ । भक्ति प्रार्थना संप्रयोजन भी इस से अभिगृहीत होता है।

आन शब्द की योनि है-अन् धातु ।

१. अदादिगण, परस्मैपद- अनिति, प्रेरणा करणे आनयति सम्म अनिनिपति साँस लेना जीना इसका अर्थ है।

२. दिवादिगण आत्मने पद- आयते, पूरक कुम्भक रेचक क्रिया करना इसका अर्थ है। आन शब्द की सिद्धि दो प्रकार से होती है।

२.१ अन् धातु में पम् प्रत्यय लगाने से अन् + पत्र = आन की निष्पत्ति होती है।

२.२ इस धातु में आ उपसर्ग समन्तातार्थक कर क्विप् प्रत्यय जड़ने से आन का जन्म होता है। आ + अन् + क्विप् = आन। ‘धी’ से, बुद्धि विचार समझ कल्पना उत्प्रेक्षा प्रत्यय आशय प्रयोजन नैसर्गिक प्रवृत्ति का बोध होता है। ‘आन’ से बात वा बात कर्म का बोध होता है। बात अतिसूक्ष्म है, सर्वग है।

धी + आन = घ् + ई + आन
= ध् + य् + आन
= ध्यान।

ध्यान का अर्थ है- बुद्धि का वादन करना, बुद्धि को सूक्ष्म बनाना, बुद्धि को हल्की करना। जान का अर्थ प्राण, व्यान अपान, समान उदान पाँच उपसर्ग प्र वि अप् सम् उत् लगा कर क्रमशः किया जाता है. बुद्धि में अथवा मन में इन पंच जनों का हवन करना ही ध्यान है।

जो मन में प्राण का हवन करता है, वह ध्यान करता है।
जो बुद्धि में व्यान का हवन करता है, वह ध्यान करता है।
जो मन में अपान का यजन करता है, वह ध्यान करता है।
जो बुद्धि में समान का यजन करता है, वह ध्यान करता है।
जो भी में उदान को हवि देता है, वह ध्यान करता है।
यहीं है नैसर्गिक ध्यान। ब्राह्मण इसे प्राणायाम कहते हैं।

कृष्ण का कथन है…

अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।
-(भगवद् गीता ४।३०)

प्राणों से प्राणों में यजन करना हो ध्यान है। ध्यान वातन कर्म है। ध्यान वा यज्ञ पापनाशक है। छान्दोग्य, सामवेद शाखा का उपनिषद् है। इस उपनिषद् के अध्याय ५ में ध्यान यज्ञ को प्राण यज्ञ के सदृश बताया गया है। भोजन का पहला प्रास मुख में डालें तो ‘प्राणाय स्वाहा’, दूसरे मास में ‘व्यानाय स्वाहा’, तीसरे बास में ‘अपानाय स्वाहा’, चौथे मास में ‘समानाय स्वाहा’ तथा पाँचवे में ‘उदानाय स्वाहा’ कहे। ऐसा करने से क्रमशः चक्षु, श्रवणेन्द्रिय वागेन्द्रिय, मन, त्वगेन्द्रिय की तृप्ति होती है। [वाक् में जिह्वा और नासिका दोनों का योग होने से रमेन्द्रिय एवं प्राणेन्द्रिय दोनों को समझना चाहिये।]

प्रथमाहुति जुहुयात्तां जुहुयात्प्राणाय स्वाहेति प्राणस्तृप्यति ।
प्राणे तृप्यति चक्षुस्तप्यति।।
छान्दोग्य ५/१९/१,२

द्वितीयां जुहुयाद्वयानाय स्वाहेति व्यानस्तृप्यति । व्याने तृप्यति श्रोत्रं तृप्यति । छा. ५।२०।१,२।

तृतीयां जुहुयात्तां जुहुयादपानाय स्वाहेत्यपानस्तृप्यति ।
अपाने तृप्यति वाक्तृप्यति । छा. ५। २१ ।१,२ ।

चतुर्थी जुहुयात्तां जुहुयात्समानाय स्वाहेति समानस्तृप्यति ।
समाने तृप्यति मनस्तृप्यति । छा. ५ । २२ । १,२ ।

पंचमीं जुहुयात्तां जुहुयादुदानाय स्वाहेत्युदानस्तृप्यति । उदाने तृप्यति त्वक्तृप्यति । छा. ५ | २३ | १,२ ।

यह विशिष्ट अग्निहोत्र है। यह विशिष्ट ध्यान है। जो ऐसा नहीं करता उसका हवन व्यर्थ जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध अग्नि होत्र की अपेक्षा इस विशिष्ट अग्निहोत्र (ध्यान) को श्रेष्ठ बताया गया है। आगे का मंत्र…

स य इदमविद्वानग्निहोत्रं जुहोति यथाङ्गारानपोह्य भस्मनि जुहुयात्तादृक्तत्स्यात् । छा. ५ ।२४ ।१ ।

अथ य एतदेवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति तस्य सर्वेषु लोकेषु सर्वेषु भूतेषु सर्वेष्वात्मसु हुतं भवति । छा. ५ | २४ ।२।

इसके आगे के मंत्र में इस ध्यान यज्ञ का फल वही बताया गया है, जो गीता के पूर्वोक्त श्लोक में …

तद्यथेषीकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतैव हास्य सर्वे पाप्मानः प्रदूयन्ते य एतदेवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति । छा. ५ | २४ ।३ ।

जिस प्रकार सींक का अग्रभाग अग्नि में घुसा देने से तत्काल जल जाता है, उसी प्रकार जो इस प्रकार जानने वाला होकर अग्निहोत्र करता है उसके समस्त पाप भस्म हो जाते हैं।

यह वैश्वानर विद्या ही ध्यान है। विश्व रूप नर वा प्राण को जानना ही ध्यान है। यह वैदिक ध्यान है । अब मैं लौकिक ध्यान की चर्चा करता हूँ। ध्यै + ल्युट = ध्यान।

मनन करना विचारकरना स्मरण करना इसका तात्पर्य है। इस लौकिक ध्यान में जिसका मनन स्मरण किया जाता है वह ध्येय होता है तथा जो मनन स्मरण करता है वह ध्याता होता है। किन्तु वैदिक ध्यान में धी + आन के होने से जो ध्याता होता है वही ध्येय भी होता है। कल्याण दोनों से होता है। द्वैत-अद्वैत दोनों श्रेयस्कर हैं। द्वैत बाहर है, अद्वैत अन्दर है । प्राण अन्दर है, प्राण बाहर है। प्राण ब्रह्म है। अन्न ब्रह्म है। प्राण में अन्न की आहुति वा अन्न में प्राण का यजन की ब्रह्म में ब्रह्म का हवन करना है। ब्रह्म रूप आप का ध्यान करता हूँ।

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